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Sunday 26 February 2012

शायद ज़िंदगी बदल रही है!


शायद ज़िंदगी बदल रही है!
जब मैं छोटा थाशायद दुनिया
बहुत बड़ी हुआ करती थी..                           
मुझे याद है मेरे घर से"स्कूलतक
का वो रास्ताक्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेलेजलेबी की दुकान,
बर्फ के गोलेसब कुछ, अब वहां "मोबाइल शॉप",
"विडियो पार्लरहैं,
फिर भी सब सूना है.. शायद अब दुनिया सिमट रही है... . . .
जब मैं छोटा था,
शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं...
मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस", वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना, अब शाम नहीं होतीदिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है. शायद वक्त सिमट रहा है.. 

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जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती
बहुत गहरी हुआ करती थी, दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो लड़कियों की बातें,
वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं
"Hi" हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं, होलीदीवालीजन्मदिन,
नए साल पर बस SMS  जाते हैं,

शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं.. ..
जब मैं छोटा था तब खेल भी अजीब हुआ करते थे, 
छुपन छुपाईलंगडी टांग पोषम पाकट केक,  टिप्पी टीपी टाप. 
अब internet, office,  से फुर्सत ही नहीं मिलती.. 
शायद ज़िन्दगी बदल रही है. . . .

जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..  
जो अक्सर कबरिस्तान के बाहर  बोर्ड पर लिखा होता है...

"मंजिल तो यही थी बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी  यहाँ आते आते" . . . 

ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है... 
कल की कोई बुनियाद नहीं है 
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..  
अब बच गए इस पल में..

तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में  हम सिर्फ भाग रहे हैं..  
कुछ रफ़्तार धीमी करो,  मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो... 
खूब जियो मेरे दोस्त,  और औरों को भी जीने दो...

समझ जाना के वो हूँ मैं ...



हथेली  सामने  रखना ,की  सब  आंसू  गिरें  उस  में ,


जो  रुक  जायेगा  लबों पर ,समझ  जाना  के वो  हूँ मैं ..


कभी  जो  चाँद  को  देखो ,तो  तुम  यूँ  मुस्कुरा  देना ,


जो  चल  जाये  हवा  ठंडी ,तो  आँखें  बंद कर  लेना ,


जो  झोंका  तेज़  हो  सब से ,समझ  जाना  के  वो  हूँ  मैं ..


जो  ज्यादा  याद  आऊं  मैं ,तो  तुम  रो  लेना  जी भर  के ,


अगर  हिचकी  कोई  आए ,समझ  जाना  के  वो  हूँ मैं ..


अगर  तुम  भूलना  चाहो  मुझे ,शयेद  भुला  दो  तुम ,


मगर  जब  साँस  लेना ,समझ  जाना  के  वो  हूँ  मैं ...

तेरा -मेरा क्या रिश्ता है ?

तेरा मेरा क्या रिश्ता हैं ,
क्या मैं जग को बतलाऊँ ,
क्या परिभाषा दूं मैं इसकी
किन उपमानों से समझाऊँ ?
मेरी साँसें मेरा जीवन ,
मेरी धड़कन की आवाज़ हो तुम ,
मेरी चाहत मेरे अरमान ,
मेरे ख्वाबों की परवाज़ हो तुम .
तुम हो हर वो शब्द
मेरी कलम लिखा जो करती हैं ,
तुम ही वो मुस्कान
मेरे होटों पे रहा जो करती हैं .
तुम ही मेरी सोच ,
तुम ही हो अभिव्यक्त मेरे भावों में ,
तुम ही मंजिल और तुम्ही हो ,
हमसफ़र मेरी राहों में

मैं ढूंढूं जब बाहर तुमको
खुद में तुमको मैं पाऊँ ,
तुमको पाने की चाहत में ,
खुद तुझमे खोता जाऊं ....

तेरा -मेरा क्या रिश्ता है...
क्या मैं जग को बतलाऊँ ...

जब तेरी मेरी बातें होती
तब भाषा मौन हो जाती है ,
मैं और तुम की अलग -अलग
पहचान गौण हो जाती है ..

जो बांध नहीं सकता शब्दों में
ये मौन उसी की परिभाषा है ,
इतना विशाल यह सम्बन्ध -स्वरुप
इतनी विराट यह गाथा है .

इसको बतलाने को सब्दकोश में
मुझको मिलते हैं शब्द नहीं ,
इसको लिखने में कलम मेरी
रुक जाती है निस्तब्ध कहीं ..

इस अनबूझे रिश्ते को जग
गर समझो मुझको बतलाना ,
पर याद रहे अब शेष नहीं
मेरा -तेरा , खोना पाना ..

जितना सुलझाऊं इस उलझन को ,
इसमें उतना मैं उलझा जाऊं ,
तेरा -मेरा क्या रिश्ता है
क्या मैं जग को बतलाऊँ . ...